7 दिसम्बर 2018 दिन एक बार फिर एक नया अनुभव लेकर आया। मौका था दिव्यांग बच्चों की खेलकूद प्रतियोगिता का। हर साल की तरह इस साल भी विभिन्न दिव्यांगताओं के बच्चे प्रतियोगिता में शामिल हुए। सभी ने बहुत सुंदर-सुंदर चित्र बनाए। दौड़ प्रतियोगिता में भाग लिया और गाने भी गाए।
इस साल की तरह कार्यक्रम का पूरा संचालन करने की जिम्मेदारी मेरी थी। मैंने माइक थामकर बोलना शुरू किया। एक-एक करके कार्यक्रम में उपस्थित सभी अतिथियों का नाम बोलकर उनका अभिनन्दन किया। कार्यक्रम के आयोजन के बारे में बताया। एक-एक करके सभी अतिथियों को माइक पर आकर बोलने के लिए आमंत्रित किया। एक सज्जन तो अपना नाम सुनकर भाग खड़े हुए। एक महिला ने मंच पर आकर बोलने से इंकार कर दिया। खैर, कोई बात नहीं झिझक सबको होती है माइक पर आकर बोलने में।
मैंने माइक पर लोगों को बताया कि यहां कोई दिव्यांग, विशेष या विकलांग नहीं है। सबकी अपनी क्षमताएं हैं जीवन जीने की और अपने अनुसार कार्य करने की। हमें सिर्फ इनकी विविधता को सहज रूप में स्वीकार करना चाहिए, यही इनके लिए हमारी ओर से सबसे बड़ी मदद है।
आखिर में पुरस्कार और सर्टिफिकेट वितरण करने का अवसर आया। मैंने फिर से माइक थाम लिया। सर्टिफिकेट पर लिखे दिव्यांग बच्चों के नाम बोलने में कहीं-कहीं मैं अटक रहा था। मेरे सहकर्मी बच्चों का नाम पुकारने के लिए खुद उत्सुक हो रहे थे, लेकिन मैंने किसी को बोलने का मौका ही नहीं दिया। थोड़ा अटककर ही सही सारे बच्चों के नाम मैंने ही पुकारे।
मेरे हकलाने पर किसी को भी कोई आश्चर्य नहीं हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि अब सभी लोग हकलाहट को सहज रूप में स्वीकार करने लगे हैं। यह दिन एक सुखद अनुभव से भरा रहा। हकलाने के बावजूद भी मेरे मन में कोई बोझ या डर महसूस नहीं हुआ।
– अमित,
सतना, मध्यप्रदेश।
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