अब तक मैं इस गलतफहमी में जी रहा था कि हकलाने के बावजूद भी संतोषजनक तरीके से संचार कर पाता हूं। जब मैं अप्रैल 2017 में दिल्ली में आयोजित तीसा की संचार कार्यशाला में शामिल हुआ, तो वहां कई गतिविधियों में शामिल होकर मुझे अहसास हुआ कि अब भी मैं अपनी हकलाहट को छिपाने की कोशिश कर रहा हूं।
उदाहरण के लिए, मैं रोज सुबह अपने आफिस बस से जाता हूं। बस स्टैण्ड तक जाने के लिए आॅटोरिक्शा लेना पड़ता है। मुझे “बस स्टैण्ड” बोलने में बहुत परेशानी होती थी, इसलिए मैं अक्सर यह बोलता था-
अरे भईया, बस स्टैण्ड जाना है!
अपना वो, बस स्टैण्ड जाना है!
स्टैण्ड जाना है!
इसी तरह के और भी कई शब्द हैं, जिनको बोलने के लिए मैं अनावश्यक रूप से उनके आगे कोई शब्द लगा देता था।
जैसे, जब मैं किसी को फोन करता तो बोलता-
सर, मैं अमित सिंह कुशवाह बोल रहा हूं!
नमस्ते सर, मैं अमित सिंह कुशवाहा बोल रहा हूं!
यानी मैं सीधे फोन पर अमित सिंह कुशवाहा बोलने के बजाए, उसके पहले कोई दूसरा वाक्य बोलकर आसानी से हकलाहट को छिपा लेता था।
दिल्ली की संचार कार्यशाला से वापस लोटने के बाद मैंने अपनी इन गलतियों को महसूस किया और उन पर काम करने का निर्णय किया।
अब मैंने आॅटोरिक्शा वाले को सीधे बोलता हूं- बस स्टैण्ड जाना है। कठिन शब्द को पहले बोलना थोड़ा मुश्किल लगा, लेकिन एक रास्ता था कठिन शब्दों के डर से आजाद होने का।
साथ ही अब जब भी कोई फोन करता हू्र तो पहले बोलता हूं- अमित सिंह कुशवाहा बोल रहा हूं। यानी अब पहले की तरह सर या नमस्ते शब्द का उपयोग करना बन्द कर दिया है।
मुझे खुद भी बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिन शब्दों से बचने की कोशिश मैं कई सालों से करता आ रहा हूं, अब थोड़ी सी कोशिश करके उन्हें आसानी से बोल पा रहा हूं।
इसलिए हमें कठिन शब्दों से भागने की बजाए उनसे दोस्ती करना चाहिए, यानी बोलने का प्रयास करना चाहिए। फिर देखिए कमाल सारा डर गायब हो जाएगा, और आप सफल संचारकर्ता बनने की दिशा में आगे बढ़ेगे।
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