नमस्कार मित्रों! मैं प्रसन्नजीत, एम.टेक. का छात्र हूं। यहां आप सब लोगों से हकलाहट की स्वीकार्यता पर अपने अनुभव साझा करने जा रहा हूं। मेरी जीवन में हकलाहट की शुरूआत बचपन में हुई। दादाजी बताया करते थे कि अपनी आंटी की नकल करते-करते मैं खुद हकलाने लगा। कक्षा दसवीं तक हकलाहट बहुत कम थी। यहां तक की स्कूल में आयोजित वाद-विवाद प्रतियोगिता में शामिल होकर कई बार मैंने ईनाम भी जीता। बारहवीं कक्षा तक आते-आते हकलाहट के विषय में जागरूकता बढ़ने लगी। हकलाना भी अधिक होने लगा। इसी दौरान अखबार में एक विज्ञापन देखा। एक आयुर्वेदिक दवा के द्वारा हकलाहट के इलाज का दवा किया गया था। मैंने इस दवा का सेवन लगातार 3 माह तक किया, लेकिन परिणाम शून्य था, कोई लाभ नहीं। इस तरह, यह मेरा पहला प्रयास था, खुद को क्योर करने का।
इसके बाद इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में सफल हुआ और अपने प्रदेश के सरकारी काॅलेज में एडमीशन लिया। यह वह दौर था जब मेरी हकलाहट चरम स्थिति पर थी। कारण था- रैगिंग का डर, सीनियर्स/टीचर्स को परिचय देना और असुरक्षा की भावना। बी.टेक. की पढ़ाई का पहला साल मेरे जीवन का सबसे खराब समय रहा। मैंने एक बार फिर से आयुर्वेदिक दवा का सेवन करना शुरू किया, लेकिन कोई फायदा नहीं पहुंचा। काॅलेज के दूसरे वर्ष में रैगिंग का कोई डर नहीं रहा। पहले साल की तुलना में मैं अधिक साहसी हो गया। कुछ अवसरों पर बोलने का डर और हकलाहट कम होती रही। तीसरे साल का तो मैंने भरपूर आनन्द उठाया, क्योंकि आत्मविश्वास बढ़ गया था। तीसरे साल के अंत तक हकलाहट को लेकर मेरे भीतर डर वापस आने लगा। प्लेसमेन्ट, सेमिनार और प्रोजेक्ट की चिन्ता के कारण।
मैं बहुत भाग्यशाली रहा, क्योंकि इन सभी चुनौतियों को आसानी से पार कर लिया। सभी सेमिनार, प्रोजेक्ट और प्रेजेन्टेशन अच्छी तरह हुए। दोस्तों ने मेरे प्रेजेन्टेशन की प्रशंसा की। यहां पर मेरा बी.टेक. करियर खत्म हुआ। एक नाम कम्पनी में नौकरी मिली। लेकिन इंजीनियरिंग के 4 सालों में हकलाहट के कारण मैं कई चीजों से वंचित होता रहा। जैसे- क्रिकेट टीम में शामिल होना, मार्शल आर्ट, सेमिनार में भाग लेना, डांस, कक्षा में अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए टीचर से सवाल पूछना, लड़कियों से बातचीत करना, लेपटाॅप पर गेम खेलना, कार्यक्रम आयोजित करना… यह सूची और अधिक लम्बी हो सकती है। यह सारी गतिविधियां एक इंजीनियरिंग छात्र के लिए पढ़ाई के साथ होना एक सामान्य बात हैं। यहां पर आप देख सकते हैं कि यह सारी गतिविधियां करने के लिए अच्छा वक्ता होना जरूरी नहीं है, फिर भी मैंने खुद को इन सबसे अलग कर लिया था।
कारण आसान है-डिप्रेशन। यह कठिन समय में और अधिक भयानक रूप में सामने आता था। जरा सोचिए, एक ऐसा व्यक्ति जो बार-बार आत्महत्या करने का विचार कर रहा हो, वह जीवन का आनन्द उठाने के बारे में कैसे सोच सकता है? मैंने कई मौकों पर खुद को अकेला कर लिया जैसे- पहले वर्ष में फ्रेशर्स वेलकम पार्टी में बहाना बनाकर शामिल न होगा। मित्र सोचते मैं अंतर्मुखी हूं, लड़कियों को लगता मुझे पढ़ाई में अच्छे नम्बर आने पर घमंड है, परिवार कहता मैं अपनी मनमर्जी पर अटल हूं, दूसरे लोग सोचते मैं बेचैन और निराश हूं, लेकिन कोई भी यह ठीक तरह से नहीं समझ पा रहा था की मैं आखिर इतना असहाय क्यों हूं?
जब मैंने पहली नौकरी ज्वाॅइन की, तो एक बार फिर मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया। कम्पनी में मैं कुछ कर्मचारियों का बाॅस था। अब किसी को अपना परिचय देने की जरूरत नहीं। आगे चलकर मुझे कम्पनी द्वारा आयोजित एक ट्रेनिंग प्रोग्राम में भाग लेना पड़ा। यहां शुरूआत में अपना परिचय देने की औपचारिकता थी। मैंने हकलाहट को छिपाने के लिए एक शाॅर्टकट अपनाया। अपना पूरा नाम प्रसन्नजीत कथुआ की जगह पी. कथुआ बोला। मेरे मित्रों ने इस पर सवाल किए। मैंने कहा- मेरा नाम लम्बा है, इसलिए संक्षिप्त करके बोलना उचित समझा। नौकरी करते हुए 2 साल बीत जाने के बाद एक और ट्रेनिंग प्रोग्राम 7 दिन का रखा गया। इसके पहले के सभी प्रोग्राम 2 या 3 दिवस के हुआ करते थे, जहां पर सिर्फ एक बार ही अपना परिचय देना होता। लेकिन इन 7 दिनों में 12 लेक्चर थे, यानी कुल मिलाकर 11 बार परिचय देना था। प्रोग्राम में 2 बार मैं टाॅयलेट जाकर परिचय देने से बच गया और जब परिचय सत्र समाप्त हो गया, तब कक्षा में आया। बाकी 9 बार स्वयं का परिचय देते समय हर बार हकलाया। मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ। हम एक सुंदर रिजार्ट में थे। सभी लोग स्वादिष्ट भोजन और अन्य सुविधाओं का लुत्फ उठा रहे थे, लेकिन मैं इन सबसे दूर सातवें दिन के आने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था। आखिरकार प्रोग्राम खत्म हुआ और मैंने राहत की गहरी सांस ली। प्रोग्राम से वापस लौटते समय मैंने एक शपथ ली- पहले अपनी हकलाहट को ठीक करूंगा, इसके बाद जीवन की दूसरी चीजों के बारे में सोचूंगा।
मैंने इंटरनेट पर खोजना शुरू किया। पहली बार मुझे Malcom Fraser की किताब “Self therapy for the stutter” मिली। मैं इस किताब को पढ़कर बताए गए अभ्यासों को खुद पर आजमाने लगा। साथ ही होमियोपैथी दवा का सेवन किया, लेकिन कोई फायदा नहीं पहुंचा। यू-ट्यूब पर एक वीडियो देखने को मिला। इससे जानकारी मिली कोई भी दवा हकलाहट को ठीक नहीं कर सकती, सिर्फ स्पीच थैरेपी ही एक विकल्प है। अन्य वेबसाइट पर भी खोज किया, लेकिन आॅफिस में कार्य की अधिकता के कारण प्रैक्टिस के लिए समय नहीं निकाल सका। तभी एक चमत्कार हुआ, एनआईटीटी में मेरा चयन एम.टेक. प्रोग्राम के लिए हो गया। यह मेरी कम्पनी के सहयोग से था। लिखित परीक्षा और इंटरव्यू देने के बाद मुझे तो लगा था कि मेरा चयन कभी नहीं होगा।
ईश्वर बहुत महान हैं। मैं नहीं जानता की इतनी कड़ी प्रतियोगिता और खराब इंटरव्यू के बावजूद भी मेरा चयन कैसे हो गया। यह मेरे जीवन का एक अद्भुत मोड़ था। मैंने एम.टेक. कोर्स ज्वाइन किया। यहां पर पर्याप्त समय और फ्री, तेज इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध थी। मैंने इसका इस्तेमाल किया। समर्पित होकर हकलाहट की अनसुलझी गुत्थी की खोजबीन शुरू कर दिया। कई पुस्तक, वीडियो डाउनलोड किया, अन्य हकलाने वाले लोगों के विचारों, अनुभवों और टिप्पणियों को पढ़ा। इससे हकलाहट के प्रति मेरा नजरिया और व्यवहार बदलने लगा। मेरे अन्दर अधिक से अधिक जानने की उत्सुकता आ गई। फिर मैं टीसा के सम्पर्क में आया। टीसा के ब्लाॅग की हर पोस्ट को पढ़ने लगा। डाॅ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने मार्गदर्शन किया और उनकी लिखित स्वयं सहायता पुस्तिका “अपना हाथ जगन्नाथ” को पढ़कर काफी अच्छी जानकारी मिली। हेमन्त जांगिड़ जी का बहुत धन्यवाद। इनसे पहली बार हकलाहट के बारे में खुलकर बातचीत हुई थी फोन पर। मुझे टीसा के व्हाट्सएप ग्रुप में जोड़ा गया। अब मैं अपनी भावनाएं आसानी से दूसरे हकलाने वाले साथियों के साथ साझा करने लगा। मेरे मन का बोझ कम होने लगा। इन गतिविधियों से प्रेरित होकर पवित्र कार्य में जुट गया- प्राणायाम, ध्यान, प्रोलाॅगशिएशन तकनीक, कठिन ध्वनियों/शब्दों का सही उच्चारण, अपनी बातचीत को रिकार्ड कर सुनना इत्यादि। इस तरह अपनी हकलाहट का पूर्ण प्रबंधन करने के रास्ते पर चल पड़ा। आज मैंने अपनी कक्षा में एक प्रेजेन्टेशन दिया, एकदम तनावमुक्त होकर, आराम से। सभी साथियों ने अच्छी प्रतिक्रिया दी। मैं इससे बहुत खुश हूं, लेकिन और अधिक सुधार के लिए लगातार प्रयासरत भी हूं।
संयोग से मैं एक आध्यात्मिक व्यक्ति हूं। मैंने ईश्वर से प्रार्थना की- मुझे क्योर कर दें। मैं क्यों हकलाता हूं, इसका कारण बताएं, लेकिन मुझे कोई उत्तर नहीं मिला। आखिर में इस वीडियो https://www.youtube.com/watch?v=9GQ_bO27-Ug), में मुझे मेरे सारे सवालों का जवाब मिल गया। इसने मुझे बहुत प्रेरित किया। डाॅ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने एक जगह कहा है- हम खुद को पहचान सकते हैं, अपनी ही कोशिशों से…
मैं सौभाग्यशाली हूं की हकलाने के कारण दोस्तों ने मुझे कभी नहीं चिढ़ाया, बल्कि मेरा आत्मविश्वास और योग्यताओं को बढ़ाने में हमेशा मदद की। जीवन में सिर्फ एक बार किसी ने मेरा मजाक उड़ाया था, वे थे मेरे अंकल। हकलाहट ने मेरे व्यवहार में महत्वपूर्ण बदलाव लाया, अब मैं किसी से कोई खास उम्मीद नहीं करता। अब जिन्दगी में मेरी कोई चाहत नहीं। ईश्वर ने मुझे संदेश दिया है- जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं, सुख हो या दुःख, या फिर हकलाहट सब अस्थायी हैं, हमें धैर्य के साथ इन सबका सामना करना है। इस विचार ने मेरी अंर्तआत्मा को प्रेरित किया है।
एक बार मुझे बड़ी तकलीफ हुई। कुछ स्थायी रूप से अक्षम व्यक्तियों को देखकर। नेत्रहीन, बधिर, चलने-फिरने में अक्षम व्यक्तियों की चुनौतियों जीवनभर के लिए स्थायी होती हैं। हो सकता है कि ईश्वर उन लोगों का इतना सक्षम समझता हो, तभी तो उनके हिस्से में जिन्दगीभर के लिए चुनौतियां दी हैं। इसी तरह हकलाना भी हमेशा आपके साथ रहने वाला है। यदि आप स्वयं कुछ कोशिश नहीं करेंगे तो परेशान रहेंगे। आप मेहनत करके अपनी हकलाहट का कुशल प्रबंधन कर सकते हैं, एक कुशल संचारकर्ता बन सकते हैं।
मैं हकलाहट के कारण जीवन के कई सुन्दर मौकों से वंचित होता रहा हूं। क्रिकेट, गाना, फिल्म, समाचार, खुद का विकास- इन सब पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाया। जब कभी मेरे दोस्त किसी विषय पर चर्चा करते हैं, तो मैं खामोश हो जाता हूं। मेरे पास बोलने के लिए सटीक जानकारी ही नहीं होती। मैं अक्सर विचार करता हूं कि अगर आज ईश्वर मेरी हकलाहट ठीक कर दें, तो क्या कल मैं अपना जीवन अच्छी तरह से व्यतीत कर पाउंगा? जिन्दगी के मार्ग पर हकलाहट के कारण मैंने अपना उत्साह खो दिया था। इसलिए अपना उत्साह बढ़ाने के लिए कुछ समय और प्रयास जारी रखने होंगे। मुझे याद है मैं हमेशा से ही पायलट बनना चाहता था। अगर मैं क्योर होता तो मेरा जीवन कितना शांत और आनन्दमय होता- यह विचार अक्सर मन में उठता है। आज मैं एक अच्छी नौकरी के लिए मन लगाकर लगातार पढ़ाई कर रहा हूं। मैं हर दिन समय निकालकर खुद की भलाई के लिए प्रयास करता हूं। किसी ने कहा है- अगर आपकी जिन्दगी सबसे खराब है, तो खराब हालातों में जीना सीख लो, जिन्दगी आसान हो जाएगी। आपके धैर्य के लिए धन्यवाद!
– प्रसन्नजीत कथुआ।
मूल इंग्लिश पाठ के लिए लिंक – http://t-tisa.blogspot.in/2015/03/my-story.html
2 thoughts on “मेरी कहानी”
Sachin
(December 26, 2016 - 8:27 pm)भाई अमित – मजा आ गया ! अपनी जुबान में ऐसा कुछ पढ़ना एक अलग अनुभव है ..
कृपया ऐसे ही हिंदी में लिखते रहिये.. अनुवाद भी करते रहिये.. ऐसी बहुत सी कहानिया हैं जो अगर हिंदी में हो तो बहुत से युवाओ को प्रेरणा दे सकती हैं ..
नया वर्ष आपको मंगलमय हो!!
Raman Maan
(December 29, 2016 - 11:20 am)really inspiring story … apna haath jaganaath … only we can do work for our betterment