सांस्कृतिक विरासत और इतिहास के शहर मैंगलोर में द इण्डियन स्टैमरिंग एसोसिएशन (तीसा) की 3 दिवसीय संचार कार्यशाला का आयोजन किया गया। हकलाने वाले लोगों के लिए यह कार्यशाला 16 से 18 जून 2017 तक आयोजित की हुई। कार्यशाला मैंगलोर के साथ ही मुम्बई, गोवा, हैदराबाद, बैंगलुरू, पुणे, इंदौर और देहरादून के प्रतिभागियों ने शिकरत की।
कार्यशाला में इस बात पर जोर दिया गया कि हकलाहट को विस्तार से जानने और समझने के लिए खुद उसका अवलोकन करना एक बेहतर तरीका है। तीसा हकलाने वाले लोगों को संचार के बारे में व्यावहारिक ज्ञान और अवसर प्रदान करने के साथ ही समाज को हकलाहट के बारे में जागरूक करने का कार्य कर रहा है। आज भारत में 1 से 2 प्रतिशत यानी 1 से 2 करोड़ लोग हकलाते हैं। इसमें बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं। हर क्षेत्र और समुदाय के लोग हकलाहट की चुनौती का सामना कर रहे हैं। इसमें इंजीनियर, वरिष्ठ वकील, छात्र सभी शामिल हैं।
तीसा के संस्थापक और उनके सहयोगियों द्वारा कार्यशाला के विभिन्न सत्रों के दौरान हकलाने वाले व्यक्तियों को बहुत ही संवेदनशील और व्यावहारिक तरीके से हकलाहट के विषय में विस्तार से प्रशिक्षण प्रदान किया गया। आधुनिक समय में उपलब्ध तमाम उपायों पर कार्यशाला में चर्चा की गई। बातचीत, खेल के साथ ही बोलने की कई तकनीकों का अभ्यास किया गया। यह सभी रोचक अभ्यास प्रतिभागियों के लिए फायदेमन्द रहे।
तीसा के एक वरिष्ठ सदस्य, हरीश उसगांवकर और बीनू गोपालकृष्ण ने अभ्यास के दौरान जरूरतमंद हकलाने वाले व्यक्तियों को कुशल संचार के गुण सिखाएं। कार्यशाला में प्रतिभागियों को हकलाहट पर अपने अनुभवों को साझा करने का पूरा मौका दिया गया। बोलने की आसान तकनीकों के अभ्यास ने प्रतिभागियों के मन में सकारात्मक बदलाव के लिए प्रेरित किया। सभी के लिए यहां मिला प्रोत्साहन अकेलापन और असफलता से बाहर आने में मददगार साबित हुआ। हकलाहट के काल्पनिक डर, तनाव और असफलता की भावना- इन सब मुद्दों पर कारगर चर्चा हुई। इससे लोगों को हकलाहट को स्वीकार करने और समस्या से बाहर आने की प्रेरणा मिली। एक अनिवार्य सच से सबका सामना हुआ- बोलने में रूकावट का मतलब यह नहीं की जिन्दगी में परेशानी ही परेशानी है। हकलाना भी बोलने का एक अलग तरीका है, इसलिए बिना छिपाएं खुलकर हकलाएं। चाहे परिणाम कुछ भी हों।
कार्यशाला में आए एक वरिष्ठ नागरिक ने कहा- यहां आकर मेरी आंखें खुल गईं। बहुत ही अद्भुत तकनीकों का अभ्यास किया गया और 60 वर्ष की मेरी हकलाहट वाली जिन्दगी में ऐसा अवसर पहली बार था जब मैंने खुलकर आनन्द महसूस किया। अपने विचारों को सकारात्मक बनाए रखना, हकलहट को स्वीकार करना, पारदर्शिता और स्वयं सहायता आदि प्रयोगों को तीसा ने विकसित किया है। यह वाकई अनोखा कार्य है। यदि इस प्रकार की प्रेरणा और प्रशिक्षण मुझे पहले मिला होता तो मैं आज हकलाहट से बाहर आ गया होता। कार्यशाला में विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत युवाओं ने आकर प्रशिक्षण दिया। यह प्रयास और अधिक लोगों को लाभ पहुंचा सकते हैं, यदि मीडिया और संस्थाएं हकलाहट पर ध्यान दें। तीसा के सक्रिय और समर्पित सदस्यों के अथक प्रयासों के चमत्कारिक परिणाम हकलाने वाले व्यक्तियों में दिखाई दे रहे हैं।
कोयम्बटूर से आए साफटवेयर इंजीनियर श्रीरंगनाथन ने बताया- ये 3 दिन मेरे जीवन के यादगार दिन रहे। कार्यशाला में सभी लोग एक-दूसरे से खुलकर बातचीत कर रहे थे और बिना किसी प्रयास के सभी को अच्छे मित्र मिल गए। मैंने यहां पर हकलाहट को स्वीकार करने के साथ जीवन को एक नए और सकारात्मक दृष्टिकोण से देखना सीखा है। कार्यशाला में हकलाने वाले साथियों को अपनी चिंताओं और परेशानियों को समझने और उनसे बाहर आने का व्यावहारिक तरीका सिखाया गया। इतिहास में कई महान् व्यक्तियों के नाम दर्ज हैं, जिन्होंने हकलाते हुए भी अपने कार्य से अपना नाम स्थापित किया।
इस कार्यशाला ने मैंगलोर शहर को एक स्पष्ट संदेश दिया कि हकलाहट को विकलांगता की तरह देखने और समझने की बजाए जीवन के एक पहलू के रूप में देखा जाए। 1 करोड़ हकलाने वाली आबादी की तरफ अभी सरकार का ध्यान नहीं जा पाया है। इस तरह के प्रयासों को प्रोत्साहन दिए जाने की जरूरत है।
नोट:- यदि आप हकलाते हैं या तीसा के कार्यों को प्रोत्साहन देना चाहते हैं तो मैंगलोर एवं आसपास के क्षेत्र के लिए सम्पर्क करें: बीनू गोपालकृष्ण मो. 09739866947 binukottoor@gmail.com