देश में शराबन्दी, नोटबन्दी और रोमियोबन्दी शब्द सुनने के बाद एक नया शब्द मेरे सामने आया है – हमारी सोचबन्दी।
एक दिन टीवी चैनल पर जैन धर्मगुरू ने बहुत सुन्दर बात कही- आज हर व्यक्ति राजनीति का मास्टर है। मोदी जी को ऐसा नहीं करना चाहिए, मोदी जी को वैसा नहीं करना था। अरे! आप मोदी जी को छोड़ो खुद को देखो, अपने घर-परिवार को देखो।
सच तो यही है कि हममें से अधिकांश लोग इसी चिन्ता में जी रहे हैं कि लोग क्या कहेंगे? लोग क्या सोच रहे हैं? लोग क्या कर रहे हैं? इसी उधेड़बुन में इंसान ने खुद को भुला दिया है। चाहे हकलाने वाला व्यक्ति हो या कोई और व्यक्ति सबने अपने बारे में चिन्ता करना छोड़ दिया है। अब हम खुद से ज्यादा दूसरों की चिन्ता करने लगे हैं।
पता नहीं मेरे हकलाने पर लोगों की प्रतिक्रिया कैसी होगी? हकलाहट का प्रबंधन कैसे करना है, यह जानते हुए भी कई बार हम खुलकर हकलाने का साहस नहीं कर पाते। कारण साफ है- हकलाने का डर और धाराप्रवाह बोलने की चाह। यह दोनों सोच हमारी राह में सबसे बड़ी बाधा हैं।
समाज में अधिकतर लोग धाराप्रवाह बोलते हैं, इसलिए यह मान लिया गया कि एक सामान्य और स्वस्थ्य व्यक्ति के लिए धाराप्रवाह बोलना जरूरी है। लेकिन भारत के संविधान, किसी कानून या मेडिकल साइंस में यह कहीं भी नहीं लिखा गया कि धाराप्रवाह बोलने वाला व्यक्ति ही एक सम्पूर्ण व्यक्ति है या हकलाने वाले व्यक्ति को खुलकर हकलाने या हकलाकर बोलने का अधिकार नहीं।
साफ है कि भेदभाव की शुरूआत कहीं न कहीं हमारे अन्दर से ही होती है। आखिर, आपने इस अलिखित और अवैधानिक नियम को कैसे मान लिया कि धाराप्रवाह बोलना आपके लिए भी उतना ही जरूरी है, जितना दूसरे लोगों के लिए? क्या बोलने के लिए आपका कोई अपना अलग नियम नहीं हो सकता, जिसमें आप खुलकर हकलाकर बोलें?
टीवी पर ही एक आयुर्वेदिक दवा के विज्ञापन में डाॅक्टर ने कहा- आपको अपना डाॅक्टर खुद बनना होगा। आप ही अपने आप को ठीक कर सकते हो, सेहतमंद रख सकते हो। प्राणायाम, योग, ध्यान, खान-पान पर संयम और सही दवा अपनाकर आप रोगों से बच सकते हैं।
यह संदेश हमें सीख देता है कि चाहे कोई बीमारी हो, हकलाहट हो या जीवन की तमाम चुनौतियां उनका समाधान हमारे अंदर है, हमें ही प्रयास करना है, हमें ही मेहनत करना है।
हममें से हर व्यक्ति बड़े सपने देखता है। हर व्यक्ति में चाह होती है अच्छा करने की। इस राह में रूकावट पैदा करती है हमारी सोच, हमारी सोचबन्दी। जो हमें आगे नहीं बढ़ने देती।
तीसा एक ऐसा ही मंच है, जो हकलाने वाले लोगों की सोच में बदलाव लाता है, उनकी सोच को सकारात्मक बनाता है। पुरानी और निरर्थक सोच की बेड़ियों से बाहर निकलकर खुले आसमान में उड़ने के लिए प्रेरित करता है तीसा।
इसलिए सोच के फेर में अपना समय बर्बाद न करें। सोच को खुला छोड़ दिया जाए। नए विचार, नए तर्क, नई जानकारी, नई पहल, नए प्रयास और नई सफलता अर्जित की जाए। कहा भी गया है मन के हारे हार, मन के जीते जीत। यदि आपने स्वयं को भीतर से मजबूत बना लिया तो दुनिया आपको सलाम करेगी।
09300939758
1 thought on “हमारी सोचबन्दी!”
Sachin
(April 16, 2017 - 12:47 pm)बहुत सुन्दर, अमित ! अपने पर और अपनी सोच पर ध्यान देना ज्यादा जरुरी है.. आप भला तो जग भला..