मेरा नाम भावना पाटिल है। मैं तीसा के मुम्बई स्वयं सहायता समूह से जुड़ी हुई हूं।
गोवा में सितम्बर, 2016 में तीसा की नेशनल कांफ्रेन्स का आयोजन होने जा रहा था। मैं इसको लेकर बेचैन और तनाव में थी। यह पहला मौका था जब मैं तीसा की नेशनल कांफ्रेन्स में शामिल होने जा रही थी। अब तक मैं सिर्फ कुछ मुम्बई के लोगों को जानती थी। लेकिन जब मैं गोवा पहुंची तो यहां एक अनन्त काम्फोर्ट जोन (ऐसा सुविधा क्षेत्र जहां हम खुद को सुरक्षित और आरामदायक महसूस करते हैं।) को महसूस किया। यहां गोवा समूह के लोग सभी का पूरी गर्मजोशी के साथ स्वागत कर रहे थे।
हर कोई अपना परिचय हकलाकर, रूक-रूककर दे रहा था… हकलाने की पूरी आजादी थी यहां पर। बोलते समय रूकने पर लोग खुद को और अधिक सहज महसूस कर रहे थे। कोई भी, किसी की हकलाहट पर हंस नहीं रहा था। नेशनल कांफ्रेन्स में कई अनुभवी और सफल लोगों से मिलने का मौका मिला। मैं अक्सर सोचा करती थी कि हकलाने की वजह से जिन्दगी में कुछ अच्छा नहीं कर पाऊंगी। लेकिन यहां पर इन लोगों से मिलकर मेरी सोच में सकारात्मक बदलाव आया है। अब मैंने अपने लक्ष्य को पाने के लिए कड़ी मेहनत करने का फैसला कर लिया है।
गोवा के शांत वातावरण ने मुझे खुद के बारे में सोचने का सुनहरा अवसर दिया। समुद्र के सुंदर किनारों ने प्रेरित किया कि मैं यह सब कर सकती हूं, मुझे पीछे मुड़ने की जरूरत नहीं है। हमेशा आगे बढ़ते जाना है। आज मैं खुद को जैसी हूं, उसी रूप में स्वीकार कर लिया है। अब और अधिक हकलाहट को छिपाने के बजाय उस पर काम करना शुरू कर दिया है। वह भावना जो गोवा आई थी और जो भावना गोवा से वापस गई है- इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर है, भिन्नता है।
अंत में, मैं बहुत गर्व से कह सकती हूं की पूरे भारत में आज मेरे बहुत सारे दोस्त हैं। जिनसे मैं हकलाने के बारे में खुलकर बातचीत करती हूं। अनुभव साझा करती हूं, सीखती हूं। इस महान अनुभव के लिए आप सभी का शुक्रिया। मैं आशा करती हूं कि आगे भी हम तीसा के माध्यम से मिलते रहेंगे। आप सभी को शुभकामनाएं।
1 thought on “गोवा नेशनल कांफ्रेन्स 2016: मन की बातें…”
Sachin
(January 3, 2017 - 8:56 pm)धन्यवाद् अमित!
छोटी मोटी एक दो बातें मैंने ठीक कर दी हैं – जैसे की और कि का फर्क | एक फोटो भी डाल दी ..
आपने टैग का एक दम सही इस्तेमाल किया है..