फिर मैं सरकारी अस्पताल पहुंचा। बहुत ढूढ़ने पर पिताजी के बारे में पता चला। एडमिट करवाकर इलाज शुरू करवाया। थोड़ी देर बाद मेरे परिजन और परिचित अस्पताल आने लगे। इस दौरान कई बार कई अनजान लोगों से बातचीत करना पड़ा। हकलाहट भी हुई, पर फिर भी किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया।
रात में तबियत बिगड़ने पर पिताजी को सतना के एक निजी अस्पताल में ले गए। वहां पर डाक्टर ने जांच कर ब्रेन हेमरेज होने की बात कही। रात में इलाज किया गया। अगले दिन सुबह पिताजी को जबलपुर ले जाया गया, जहां पर उनका आपरेशन किया गया और इलाज चल रहा है।
इस घटना की खबर पाकर हमारे गांव से भी कुछ लोग आ गए। उन्हें घटना का विवरण बताने में मुझे बहुत ज्यादा हकलाहट होने लगी। फिर भी कोशिश करके उनके समझने लायक बातचीत कर पाया। गांव के ये लोग साक्षर नहीं हैं, मेरी हकलाहट से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
11 फरवरी को मैं सतना में ही रेल्वे पुलिस चैकी गया और बताया कि पिताजी जिस बाइक से आ रहे थे, वह नहीं मिल रही है। पुलिस ने कहा कि खुद जाकर खोजें हम लोग क्या अपने पास रखें हैं? पुलिस के इस रवैये से मैं थोड़ा आहत हुआ। फिर वापस लौट आया।
इसके बाद मैं सिटी कोतवाली गया। वहां पर हमारी बाइक खड़ी थी। अंदर जाकर मैंने बाइक के बारे में बात किया। वहां पर भी पुलिस ने उल्टे-सीधे सवाल करना शुरू कर दिया। फिर मैं वहां से वापस आ गया। सोचा बाइक तो बाद में भी उठा लेंगे।
इसी दिन पिताजी के एक मित्र जो कि कांग्रेस के नेता है, उनसे मिलने गया। पहली बार उनसे मिला था। घटना के बारे में उनको बताया। हकलाहट थोड़ा हुई थी, पर बातचीत अच्छी रही। उन्होंने भी मेरी हकलाहट पर कोई ध्यान नहीं दिया।
इस घटना से मुझे एक बात बहुत स्पष्ट हो गई है कि हमारे हकलाने से किसी को केोई फर्क नहीं पड़ता है। हमारे हकलाहट पर अधिकतर लोग ध्यान भी नहीं देते। जैसे- पुलिस को मेरे हकलाने से कोई मतलब नहीं था, वे तो घटना के बारे में जानना चाहते थे। गांव के परिचितों को भी मेरे हकलाने से फर्क नहीं पड़ता, वे भी कब और कैसे यह सब हुआ, यह जानना चाहते थे।
आज सिर्फ सन्देश का महत्व है। आपके बोलने के तरीके का नहीं। आप कैसे भी बोलिए, हकलाकर बोलिए, रूककर बोलिए, स्पीच तकनीक का इस्तेमाल करके बोलिए, लोगों को सिर्फ इस बात से मतलब है कि आप क्या बोलना चाहते हैं।
मेरा अनुभव यही है कि किसी को फर्क नहीं पड़ता आपके हकलाने से। कोई ध्यान नहीं देता आपकी हकलाहट पर। हम खुद ही हार मान बैठे हैं अपने आप से।
हकलाहट को भूल जाइए। हकलाहट को इग्नोर करिए। मैं सोचता हूं कि अगर हकलाहट है भी तो क्या हुआ? अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता मेरे हकलाने से। मैं तो केवल यही कोशिश करता हूं कि अपनी बात, अपना सन्देश लोगों को सही तरह से पहुंचा पाउं।
– अमितसिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश।
09300939758
6 thoughts on “पुलिस स्टेशन पर हकलाने का अनुभव”
admin
(February 13, 2014 - 4:08 pm)haan amit ji ye sach hai logo par iska itna bhi fark nahi padta hai,hami concious ho jate hain..jaise jaise jada se jada logo se baat karte hain..hesitation khatm hone lagta hai…Amit ji aapke father ki tabiyat ab kaisi hai…wishing he will be alright soon..
abhishek
(February 14, 2014 - 2:03 am)Aapke police ke saath anubhav ko padhkar himmat Mili. Aapke pitaji ab kaise hain? Unhe ishwar kripa se shighra swasthya laabh ho.
Sachin
(February 14, 2014 - 4:05 am)आशा है अब सब ठीक ठाक है –
सचमुच दूसरे को अपनी बात समझा पाना ही बुनियादी चीज है ..
admin
(February 14, 2014 - 4:58 am)Wish your father a speedy recovery.
Please take care.
dr vijay singh
(February 15, 2014 - 2:10 pm)मै आपके पिता जी की अति शीध्र स्वस्थ लाभ की कामना करता हू
Anand
(February 19, 2014 - 7:36 am)Hi Amit ji,
यह बहुत ही दुखद घटना है, मै ईश्वर से उनके जल्द स्वाथ होने कि प्रार्थना करता हू|
–
Anand
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