सितम्बर 2015 में अपने पिता की मृत्यु के बाद मैं बहुत उदास रहने लगा था। शुरूआती दिनों में तो रात में नींद ही नहीं आती थी। कवरटें बदलकर रात गुजरती थी। सोते समय दिवंगत पिता की याद में विचलित हो उठता था। समझ में ही नहीं आता था कि क्या करूं?
एक ऐसी स्थिति जिसे किसी के सामने व्यक्त नहीं किया जा सकता? पता नहीं लोग क्या कहेंगे? या फिर कहीं मैं खुद को कमजोर तो साबित नहीं कर रहा? कभी कभार मन में विचार आता पता नहीं अगर मैं यह तकलीफ लोगों को बताऊंगा तो वे मेरी भावनाओं को समझ भी पाएंगे या नहीं।
इस बार भोपाल नेशनल कान्फ्रेन्स 2019 के दौरान एक विशेष सत्र आयोजित किया गया। या यूं कहिए एक ऐसा अद्भुत सत्र जिसके बारे में शायद ही किसी ने सोचा हो कि तीसा में ऐसा नया प्रयोग भी कभी हो सकता है। यह सत्र था अपने प्रियजन को खोने की तकलीफ से गुजर रहे साथियों की आपस में बातचीत का।
28 सितम्बर 2018 की सुबह जब मैं पहुंचा तब यह सत्र प्रारंभ हो चुका था। एक साथी ने बताया एक रात वे गंभीर बीमार माताजी के पास ही सोए थे, जब सुबह उठकर उन्हें देखा तो कुछ समझ में नहीं आया। बार-बार उनके शरीर को हिलाया-डुलाया पर शरीर में कोई हरकत नहीं हुई। अब वे समझ चुके थे कि माताजी उनके बीच नहीं हैं। कितना कठिन रहा होगा यह सब स्वीकार करना हमारे इस साथी के लिए।
एक अन्य साथी ने बताया कि उनके पिताजी के साथ रिश्ते बहुत ही दोस्ताना रहे। पिताजी अक्सर हौंसला बढ़ाया करते थे। उनके निधन के बाद उन्हें जीवन की जटिलताओं का अहसास हुआ। जो लोग उनके पिताजी के पास मदद के लिए आते थे, उनकी बीमारी के समय उन्होंने किनारा कर लिया था। पिताजी के जाने के बाद काफी चुनौतियों का सामना करते हुए उन्होंने खुद को जीवन में आगे बढ़ाया।
मेरे मामले में मैं अपने बीमार पिताजी को आटोरिक्शा पर लेकर सरकारी अस्पताल गया था। काफी देर के बाद एक ऑटोरिक्शा मिला था। अस्पताल की ओपीडी में लम्बी लाइन के बाद डॉक्टर के पास जाने का समय आया। डाॅक्टर ने चेक करके बताया कि ये बहुत गंभीर हैं इन्हें तुरंत अस्पताल पर भर्ती करो। फिर मैंने और मेरे बड़े भाई ने फैसला किया कि अस्पताल नहीं घर पर ही इलाज चलता रहेगा। हम लोगों ने डाक्टर से निवेदन किया कि वे जरूरी दवाएं लिख दें हम घर पर ही इलाज देते रहेंगे। वापस जाने के लिए भी बड़े मुश्किल से ऑटोरिक्शा मिला। एक ऑटोरिक्शा वाला आया तो उसने मेरे पिताजी को देखकर कहा कि ये गुजर गए हैं। दूसरा ऑटोरिक्शा वाला आया उसे बड़ी मुश्किल से समझाकर पिताजी को ऑटोरिक्शा पर लिटाया। मेरे बड़े भाई दवाएं लेने मेडिकल स्टोर चले गए और मैं अपने पिताजी को लेकर अपने घर की तरफ। साथ में पत्नी भी थीं। ऑटोरिक्शा में बैठने के बाद जब मैंने अपने पिताजी के सीने पर हाथ रखा तो पता चला अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। मैं एकदम शांत रहा और ऑटोरिक्शा वाले को यह सुनिश्चित करता रहा कि ये जीवित हैं। ऐसा इसलिए करना पड़ा कि कहीं ऑटोरिक्शा वाला बीच में ही न उतार दे। यह मेरी जिन्दगी का एक ऐसा कठिन समय और कठिन फैसला रहा जिसे शब्दों में सही तरीके से बयां नहीं किया जा सकता।
इस सत्र के दौरान हमें अपनी प्रियजन के बारे में कुछ अच्छी बातें साझा करने के लिए कहा गया। कोई एक ऐसा लम्हा जब ऐसी घटना घटी हुई हो जब आप दोनों मुस्कुरा उठे हों या खिलखिलाकर हंस पड़े हों। कितना कठिन रहा होगा यह सब याद करना।
अंत में, हम सब इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भले ही हमारे प्रियजन हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी मौजूदगी को हम अपने आसपास महसूस कर सकते हैं। उनकी सिखाई गई बातों को अपने जीवन में अपनाकर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
– अमित सिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश
9300939758
1 thought on “एक सुबह अपने दिवंगत प्रियजनों के नाम . . .”
Satyendra Srivastava
(November 9, 2019 - 10:58 pm)बहुत सुन्दर अमित.. मैंने अभी हाल में कही सुना कि “… तुम्हारा वह करीबी सुबह उठ कर अब तुम्हारे लिए कॉफ़ी तो नहीं बना सकता मगर वह हर पल तुम्हारे साथ है, हर कम में शरीक है – बस तुम्हे कुछ पल को रुक कर यह महसूस करना है…”
सचमुच, हमारे ये करीबी, आखिर हमें छोड़ कर कहाँ जायेंगे?
बस चुनौती यह है, कि हम अपने कर्मो से उन्हें निराश न करें.. यानि जिंदगी ऐसे जियें की जैसे वे हर पल हमें देख रहे हैं और हमारा हर क्षण जीवन का अभिनन्दन हो, सेलिब्रेशन हो और हम अपपने आप से कम्पीट (compete) करें और अपनी बेहतरीन उर्जा जीवन के हर पल को दें..