दिल्ली देश कि धड़कन है और इसने हकलाने वालों को अपने दिल कि धडकनों को समझने, और महसूस करने का सुनहरा अवसर दिया. अकसर हकलाने के कारण हम अपने आप से जूझते रहे हैं, लड़ते रहते हैं… लेकिन दिल्ली ने हमें हकलाहट को समझने, उससे दोस्ती करने और सभी चुनौतिओं का डटकर सामना करने का हौसला दिया. मौका था टीसा कि दिल्ली में आयोजित संचार कार्यशाला का, जो कि १४-१५ जुलाई को संपन्न हुई. इस मौके पर देशभर के २७ प्रतिभागीओं ने हिस्सा लिया.
इस कार्यशाला में शामिल होकर मुझे कई नए हकलाने वाले लोगों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. हम सबने दो दिन तक काफी अच्छे से हकलाहट के बारे में जाना, और कई गतिविधिओं के द्वारा अपने हकलाने के डर को दूर करने कि कोशिश की. इनडोर और आउटडोर दोनों गतिविधिओं ने हममें हकलाहट का सामना करने कि हिम्मत जगाई.
अब मुझे हकलाहट से डर नहीं लगता और न ही किसी अनजान व्यक्ति से बात करने में कोई झिझक. टीसा ने मुझे जिन्दगी कि सबसे बड़ी चुनौती से पार पाने का राश्ता बता दिया है. टीसा के इस कार्यक्रम में शामिल होकर अब मैं वाकई समझ गया हूँ कि हकलाहट कोई इतनी बड़ी समस्या नहीं है जो हमें जिन्दगी में अपने सपनों को पूरा करने और आगे बढ़ने से रोक सके. १४-१५ जुलाई को दिल्ली में मैं कई हकलाने वाले बेमिशाल लोगों से मिला. बेमिशाल इसलिए क्योकि इन सभी में मैंने उन खुबिओं को करीब से देखा जो मुझे अन्य दूसरे लोगों में कभी नहीं दिखीं.
अकसर कुछ नासमझ लोग हकलाने वालों को मूर्ख समझने कि गलती कर बैठते हैं. अगर ऐसे लोग इस कार्यशाला कि एक झलक तक देख लें तो उनकी गलतफहमी दूर हों जाए. मैंने तो अपने सभी साथिओं से कहा कि हमारा समाज हमारे बारे में क्या सोचता है, इस बारे में सोचकर हम क्यों समय बर्बाद करें? हमें अपनी जिन्दगी कैसे जीना है यह सिर्फ हम ही तय करें. अगर समाज या परिवार हमें सपोर्ट न करें या हमारी बात को नहीं समझे तो इसमें दुखी नहीं होना चाहिए. वह इसलिए क्योकि जीवन हमारा है, फिर हम दूसरों को लेकर परेशान क्यों रहे. तय करें कि हमें हर हाल में खुश रहना है.
इस कार्यशाला कि शुरुआत में पावस आनंद का लेक्चर सुनकर बहुत प्रेरणा मिली. हमें किसी जॉब के लिए अपनी योग्यताओं और कौशल को पहचान कर ही आगे बढ़ना चाहिए. हर असफलता के लिए हकलाहट को जिम्मेदार मानकर हम अपने साथ न्याय नहीं करते. क्योकि जो नहीं हकलाते उन्हें भी जॉब से लेकर जीवन कि अन्य तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जिनका हम करते हैं. एक अन्य गतिविधी के लिए हम लोग जवाहरलाल नेहरू मेट्रो स्टेशन गए और सभी ने हकलाकर टिकट लिए. इससे हम यह समझ पाए कि हकलाने का डर बिना वजह था और टिकट काउंटर पर बैठे कर्मचारी का व्यवहार भी सामान्य रहा.
जयप्रकाश सुंडा ने हकलाहट कि स्वीकार्यता के बारे में हम सबको विस्तार से बताया और हमारी जिज्ञासाओं का समाधान किया. इस सफल आयोजन में जयप्रकाश के साथ ही दिल्ली स्वयं सहायता समूह के प्रमेन्द्रसिंह बुंदेला, अभिषेक, सिकंदर, जीतेन्दर, सौरभ, उमेश, ललित आदि ने बहुत मेहनत कि और इस कार्यशाला को सफल बनाने में आपना योगदान दिया.
सभी को बधाई और आभार . . . !
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Amitsingh Kushwah,
Bhopal (M.P.)
Mobile No. 093009-39758
11 thoughts on “शुक्रिया दिल्ली . . . !”
admin
(July 16, 2012 - 3:25 pm)Thanks Amit ji..bahut sunder post hai…ye waquai hamare liye bahut badiya anubhav tha..
lashdinesh
(July 16, 2012 - 3:33 pm)Sun k bahuth achha laga aur behad khushi huyi!! 🙂
Sachin
(July 16, 2012 - 4:03 pm)Very true Amit!
We have to live our life- without bothering about what others may or may not think..
Hemant kumar
(July 17, 2012 - 1:05 am)thanks amit ji. You have given the voice to the feelings & emotions of other stammerers.
admin
(July 17, 2012 - 2:25 am)Thanks Amit for coming all the way to Delhi and participating in the workshop. You can collect feedback/experiences from the participants and write an article in next newsletter about the workshop.
admin
(July 17, 2012 - 5:10 am)bahut badiya amit ji ……hum sabhi ko es work shop se nahi urja mil gayi hai ..aur bahut sara der bhi bahar nikla hai
sikander
(July 17, 2012 - 6:04 am)First of all, I really thank our Pramendra for requesting Amit ji to attend the workshop and giving us a chance to meet such a nice and great person. I am a big fan of his writing skill and was fortunate enough to meet him during the workshop. Amit ji, bahut bahut dhanyabad workshop mai shamil hone ke liye. Is workshop ki success mai aap ka bhi bahut bada yogdan hai. Aap se mil kar mujhe kaphi khushi hue. Aasha karta hu ki aap se phir se mulakat hogi. Dhanyabad.
sikander
(July 17, 2012 - 6:06 am)First of all, I really thank our Pramendra for requesting Amit ji to attend the workshop and giving us a chance to meet such a nice and great person. I am a big fan of his writing skill and was fortunate enough to meet him during the workshop. Amit ji, bahut bahut dhanyabad workshop mai shamil hone ke liye. Is workshop ki success mai aap ka bhi bahut bada yogdan hai. Aap se mil kar mujhe kaphi khushi hue. Aasha karta hu ki aap se phir se mulakat hogi. Dhanyabad.
admin
(July 17, 2012 - 3:20 pm)jitender gupta like this.
admin
(July 17, 2012 - 5:23 pm)great amit ji.we are very grateful to meet you. really its a very nice experience.
hemant kumar
(July 18, 2012 - 9:50 am)एक साल पहले चंडीगढ मे TISA की 1 day WORKSHOP हुई थी, I was nearby my city but मै उसमे नही गया, सोचा- एक दिन की workshop attend करने से कौनसा चमत्कार हो जायेगा जब साल भर में ही कुछ नहीं हुआ ।
(1998 में मैने india speech therapy centre आमेर,जयपुर से speech therapy ली. एक साल बाद 2000 में जयपुर मे ही graduation के लिये admission मिल गया । पर नया माहोल,नया college,नये students के बीच stammering बढ गयी । मै jaipur speech therapy centre के doctor को फ़िर से मिला । वो बोले- तुम जयपुर मे ही पढ़ रहे हो हर रविवार को यहाँ आ जाया करो its free। सो मै हर रविवार जाता था, कई stammerer के साथ group meeting होती थी । मै नये stammerers को सलाह देता था as I was senior to new stammerers. पर Bus मे टिकट college से एक station आगे का लेता था जिसको बोलना आसान था । साल भर यही सिलसिला चला । result nil.)
But after attending 2 days TISA workshop at delhi, I had to change my prejudices(opinions) – TISA workshop can do miracle on stammerer's mindset -fear, hatred, shame, avoidance, guilt.ये stammerers की डर, शरम, अपराधबोध की मानसिकता को बदलने में चमत्कारिक रूप से कारगर है ।Most effective part of this workshop was to go to metro station and purchase token & going in public and asking questions about stammering with volunteer stammering. By these activities, stammerers can bring up iceberg (of stammering) on surface and able to blast.as Stammering is like an iceberg "The part above the surface, what people see and hear, is really the smaller part. By far the larger part is the part underneath, the shame, the fear, the guilt, all those otherfeelings that we have when we try and speak a simple sentence and can't.
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