मेरा बचपन भी आम बच्चों की तरह था। ढेर सारे दोस्त और खूब सारी मस्ती। मुझे पतंग उड़ाने का बहुत शौक था। हम सभी दोस्त एक खुले मैदान पर जाकर पतंग उड़ाते थे। उस जमाने में 15 पैसे, 25 पैसे, 50 पैसे और 1 रूपए में सुंदर और रंग-बिरंगी पतंग मिलती थीं। पतंग के चक्कर में कई बार माता-पिता से डांट और मार खानी पड़ती थी।
क्रिकेट, गिल्ली-डंडा, चोर-सिपाही, लुकाछिपी जैसे खेलों में बड़ा आनन्द आता था। हम सभी दोस्त एक दुबे अंकल के घर की दीवार फांदकर अमरूद तोड़कर खाते थे। बड़ा मजा आता था इस तरह अमरूद खाने में।
कभी-कभार हम दोस्तों के बीच लड़ाई-झगड़ा भी हो जाता था, लेकिन कुछ दिनों बाद सबकुछ ठीक, पहले की तरह। उस दौरान हकलाहट से मेरा पाला नहीं पड़ा था। पहली बार मुझे कक्षा 5 में हकलाहट का अनुभव हुआ। फिर भी हकलाहट से कोई खास परेशानी नहीं थी बचपन में।
14 दिसम्बर, 1994 को हमारा परिवार अपने स्वयं के घर में एक पाश कालोनी में शिफ्ट हो गया। मैं ठीक 14 साल का था और सातवीं कक्षा में पढ़ता था। यहां नई कालोनी में मेरा बचपन गुम सा गया। कोई नया दोस्त नहीं बना पाया। मैं एक दिन में ही बच्चे से बड़ा हो गया था।
स्कूल और कालेज में दोस्त तो मिलते रहे, पर बहुत कम ही मुझमें रूचि दिखाते थे। पर नहीं क्यों? ऐसा नहीं था कि मैं लोगों से बातचीत करने में झिझकता था, पर फिर भी दोस्तों की लिस्ट बहुत छोटी रही।
आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो यही बात समझ में आती है कि हकलाहट के डर के कारण मेरा जीवन कितना नीरस और आत्मकेन्द्रित हो गया था।
वास्तव में, हम सभी हकलाने वालों को अपने जीवन में कभी न कभी इन हालतों से दो-चार होना पड़ा होगा।
1. हकलाहट का डर हमें आत्मकेन्द्रित बनाता है। हम दूसरे लोगों से ज्यादा बातचीत करना पसंद नहीं करते।
2. हकलाहट का डर हमें समाज के लोगों से जुड़ने से रोकता है, हमारा समाजीकरण नहीं हो पाता है।
3. हकलाहट का डर हमें अपनी बात, विचार और संदेश को दूसरों तक पहुंचाने से रोकता है, क्योंकि हम हकलाहट को छुपाने की कोशिश करते हैं। और इस कोशिश में कई बार हम सार्थक संवाद/संचार नहीं कर पाते हैं।
4. हकलाहट का डर हमारी प्रतिभा को बाहर आने और निखारने से रोकता है। फलतः हम प्रतिभावान होते हुए भी कुंठित रह जाते हैं।
5. हकलाहट का डर हमारे पारिवारिक रिश्तों में खटास का कारण बन सकता है, क्योंकि हम अपनी बात सही तरीके से लोगों को समझाने में असमर्थ रहते हैं।
6. हकलाहट का डर हमारी शिक्षा और रोजगार के लिए बाधक है, यह तो सभी जानते ही हैं।
7. हकलाहट का डर हमें जीवन के कई अच्छे अवसरों का लाभ उठाने और आनन्द लेने से वंचित कर देता है।
इस तरह हम यह समझ सकते हैं कि सिर्फ हकलाहट का डर हमारे जीवन को किस तरह तबाह करता रहा है। सौभाग्य से डा. सचिन सर की पहल और टीसा की बदौलत हम हकलाहट के डर से बाहर निकलकर समाज में खुलकर हकलाने की हिम्मत कर पाए हैं। हममें से अधिकतर लोगों का जीवन हो सकता है कि निराशा और डर में बीता हो लेकिन अब समय आ गया है कि हम अपने जीवन से हकलाहट के डर को दूर भगाकर जीवन का आनन्द लें। साथ ही कोशिश करें कि अपने आसपास हकलाने वाले बच्चों, किशोरों, युवाओं और उनके अभिभावकों/टीचर को हकलाहट से इस डर से निजात दिलाने का पुण्य काम कर उनके चेहरों पर मुस्कुराहट लाएंगे।
भारत में, लाखों लोग हकलाते हैं। उन सबको टीसा से जोड़ना एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन हम अपनी कोशिशों से अगर कुछ हकलाने वालों के जीवन में सकारात्मकता का संदेश ला पाएं, उन्हें हकलाहट से आजाद करवा पाएं तो यही सही मायने में हमारी सफलता होगी।
– अमितसिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश।
09300939758
2 thoughts on “जीवन को आनन्द से वंचित कर देता है हकलाहट का डर”
abhishek
(September 22, 2014 - 11:11 am)सच में बहुत सार्थक लेख है अमितजी। हम हकलाहट के डर से अपने जीवन में संकुचित स्वभाव के रहे हैं। अब समय आ गया है जब हम अपने जीवन को खुल कर जीने का पूरा प्रयास करें।
Sachin
(September 23, 2014 - 2:03 pm)बहुत सही…
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