खोल दें खिड़कियाँ . . .

टीसा की शिमला ट्रिप के दौरान २ मार्च २०१२ को हम सब शिमला में थे. इस दिन सुबह ६ बजे जब मैंने उठकर रेस्ट हॉउस के कमरे कि खिड़की से बाहर का नजारा देखा तो रोमांचित हो उठा. इतना सुन्दर, शांत और मनोहारी दृश्य मैंने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखा. अगर मै थोड़ी देर और सोने का आलस करता तो शायद इस अमूल्य अनुभव से वंचित रह जाता.
हकलाने वाले हर व्यक्ति को जीवन के हर मोड़ पर खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए. हमें रोज़ बोलने के ढेरों मौके मिलते हैं, लेकिन हकलाहट को छिपाने कि कोशिश और शर्म के कारण हम बोलने से बचते हैं. हम अपनी खिड़कियाँ खुद ही बंद कर देते हैं, अपने आप तक सीमित हो जाते हैं.
हमें यह समझ लेना चाहिए कि जीवन में बोलने के आलावा और भी बहुत कुछ काम हैं. बहुत कुछ अच्छा है. हम समाज के द्वारा बनाए हुए धाराप्रवाह बोलने कि अनिवार्यता के नियम का पालन करें, यह कोई जरूरी नहीं है. हमें बोलने के बारे में अपने नियम और अपनी सोच खुद बनानी चाहिए.
यह तभी संभव है जब हम खुद तक सीमित न रहकर आने वाले हर अवसर का उचित उपयोग करना सीखें. मान लीजिए, आप अपने परिवार की साथ कहीं पर जा रहे हैं तो टिकिट आप खुद लेने जाएं. किसी का पता जानना है तो आप खुद पूछें, फ़ोन पर कोई जानकारी लेनी है तो आप ही लें. इस तरह रोज़ आप बोलने और नए लोगों से बात करने के मौके पा सकते हैं. इससे आप खुद यह जान पाएँगे कि हकलाहट कोई समस्या नहीं है, जो आपको कोई काम करने और समाज में आपकी भागीदारी में आपको रोक सके.

Amitsingh Kushwah,
Madhya Pradesh
Mobile No. 093009-39758

Post Author: Harish Usgaonker

3 thoughts on “खोल दें खिड़कियाँ . . .

    admin

    (May 21, 2012 - 4:34 pm)

    Sach main Amit, naa jaane maine bhi kitane saal saari kiddhkiyan band kar rakhi thin. Par aab jaese jaise main unhain khol raha hun, maja aa raha hai 🙂

    Sachin

    (May 21, 2012 - 4:50 pm)

    खिडकी के साथ अगर दरवाजा भी खोल लें तो फिर क्या बात है- मजा ही आ जाए…

    admin

    (May 22, 2012 - 11:22 am)

    Mai ab khidkiyon ko khol raha hu.

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