भोपाल संचार कार्यशाला में जाने से पहले मन में एक ही बात थी कि हकलाहट का कोई न कोई समाधान हो सकता है। इसको ठीक किया जा सकता है। वर्कशाॅप में आने के बाद समझ में आया कि हकलाहट को पूरी तरह से ठीक कर पाने से बेहतर है कि हकलाहट होते हुए भी हम अपने संचार को बनाए रखें। हमें लोगों से भागने की जरूरत नहीं है, बल्कि उनके साथ हकलाते हुए ही बातचीत की जा सकती है। वर्कशाॅप के पहले मैं लोगों से भागने की कोशिश करता था उनका सामना नहीं कर पाता था। अपनी हकलाहट के कारण वर्कशाॅप में आने के बाद मालूम हुआ कि हम हकलाते हुए एक अच्छा संचार/बातचीत जारी रख सकते हैं।
वर्कशाॅप में आने पर मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया कि मेरे जैसे हकलाने वाले और भी कई लोग हैं। वर्कशाॅप में मैंने देखा कि लोग हकलाते हैं, मगर उनका हकलाते हुए भी संचार बहुत अच्छा है। मैंने सीखा कि हम हकलाते हुए भी सामने वाले व्यक्ति को अपनी बात सुना सकते हैं और दूसरों की बात को भी अच्छे से सुन सकते हैं। अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए हम और चीजों में भी ध्यान दे सकते हैं। जैसे- अपनी हेल्थ को बेहतर बनाना आदि।
वर्कशाॅप में सारी सुविधाएं बहुत अच्छी थीं। मैंने सोचा था कि वर्कशाॅप के दौरान दोपहर में लंच के लिए घर जाना पड़ेगा, लेकिन यहां पर सुबह के फ्रेकफास्ट, लंच और शाम को चाय की व्यवस्था की गई थी।
वर्कशाॅप के बाद मैंने इस बात को स्वीकार करना सीखा कि हां, मैं हकलाता हूं और मैं हकलाते हुए भी लोगों से संचार कर सकता हूं। एक बात और नोट किया जब मैं कोई भी तकनीक जैसे बाउंसिंग, प्रोलांगशिएशन के साथ कुछ बोलता हूं तो मेरा संचार अच्छा रहता है। इसलिए अब मैं बाउंसिंग को यूज करता हूं। साथ ही अपनी हकलाहट को स्वीकार कर आगे चलना चाहता हूं। आगे बढ़ना चाहता हूं। और जिन्दगी में हकलाते हुए भी और काम करना चाहता हूं, और जो मैं करना चाहता हूं, उसकी शुरूआत अभी हकलाते हुए करना चाहता हूं।
– रोहित गौर, भोपाल, मध्यप्रदेश।
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